समाज के कोयले
माना कि हीरे कोयले से बनते हैं ,मगर हर कोयला भी तो हीरा नहीं बन सकता !
लालची तो ये समाज है कि जो , कोयले को कोयला नहीं रहने देता .
रगड़ रगड़ कर खूब दर्द देता उस को , कि न हीरा हाथ में आता न बचता कोई कोयला .
और अंत में येही समाज वापस आकर , उस कोयले को असमर्थ कह धुतकार्ता !
बच के रहना भाइयों इन मूर्खों से , भरा है इन से दुनिया सारा
कोयले के गर्मी से दिन -रात चलाते हैं ये , किंतु उसको भी मार कर बनाने चाहते हैं हीरा
– H N श्याम (३० अगस्त २०१२)